हम जब कुछ कहतें हैं .... क्यों कहतें हैं? इस उम्मीद से न कि हम जिस से जो कह रहें हैं, वो हमारी बात समझेगा। है न? पर क्या ऐसा होता है?
हाँ। अक्सर तो लोग समझ ही लेतें हैं। मतलब छुट पुट, इधर उधर कि फालतू बात, मैं कल पिक्चर देख कर आयी, मुझे बिल्कुल अच्छी नही लगी, तुमने ये सब्जी कैसे बनाई वगैरह वगैरह.... अगर कोई किसी की कोई बात न समझे तो लोग बात ही क्यों करें? बेकार फालतू कि ताकत ज़ाया।
पर ऐसा भी तो होता है, कि जब हम, सच मुच, कोई बहुत ज़रूरी बात, जो अस्सल में हमें लगती है, जो दिल से महसूस होती है, जो हम बहुत परेशान हो कर कहतें हैं, वो हम जिस से कहतें हैं, वो नही समझता। होता है न। अक्सर होता है। जब होता है तो हर बार दिल को दुःख भी होता है। फिर क्यों कहतें हैं? क्यों चुप नही रहते?
चुप रहा नहीं जाता। मन करता है, एक चांस मार लूँ, शायद तुम समझ ही जाओ। क्योंकि प्रॉब्लम ये है न कि कभी कभी, लोग समझ भी लेतें हैं। consistency नाम की तो कोई चीज़ ही नहीं है । उसपर मुश्किल ये, कि जिसे समझनी चाहिए, उसे समझ नही आती। और दूसरे लोगों को समझ आ जाती है, तो चलो, कॉन्सोलेशन पराईज़ है, कभी खुशी होती है कि कुछ तो मिला, और कभी गुस्सा आता है, जी चाहता है वापिस मुँह पर दे मारो, ये तो नहीं माँगा था मैंने, ये क्यों दे दिया? अपने पास रखो।
तो प्रशन है कि क्यों कभी तो कोई समझता है, और कभी नही समझता? या फिर ये, कि समझना किसको कहतें हैं? मुझे कैसे पता चले कि आप मेरी बात समझ गए? मेरी बात कि प्रतिक्रिया में आप जो कहतें हैं, उसी से न? तो फिर हो सकता है, कि आप मेरी बात समझ जाएँ, पर जो प्रतिक्रिया आप करें उसे मैं न समझूं, क्योंकि आपने वो नही कहा जो मैं सुनना चाहती हूँ, तो मैं समझूं कि आप समझे ही नही। और इसका विपरीत भी हो सकता है कि, आप कुछ भी न समझें पर गलती से तुक्के से, जो मैं सुनना चाहती हूँ, वो आप कह दें, और मैं खुश हो जाऊं कि वाह आप ही एक सयाने मिले हो, जिसके पल्ले तो पड़ा कि कहा क्या मैंने। :) हम्म... बड़ी मुश्किल है जी।
ज्यादा सोचो, तो हैरत कि बात ये नही है कि जिससे कहतें वो समझता नही, हैरत कि बात ये है, कि कभी समझ भी लेता है। दास द्वार का पिंजरा, जा में पंछी पओन। रहने में आसचर्य है, उढत अचम्भा कौन?
It is beautiful, that in the course of the individual trajectories that we follow through life, once in a while, there is comprehension, communication, they overlap, and for a few seconds, you see from my eyes. Fine, if that is myth, I would much rather live in it. Those are the most precious moments of my life, when for no apparent reason, you knew what I meant. Or I deluded myself into thinking that you did. I live for them, because there is so much I want to tell you. I wish it wasn't like that, I wish I did not want to tell you anything, I wish I could not care less, because you disappoint me all the time time, but that is not how it is, is it? I do, I do want to tell you stuff, and it is useless, mundane, boring stuff, the same as you might want to tell me too, we both already know it, but I still want to tell you.
है बहुत कुछ, जो मुझको कहना है। अबक्यों इतना कुछ मुझको कहना है और तुमको कुछ सुनना नही। क्यों जब लोग बहुत हैं दुनिया में फिर तुमसे ही क्यों कहना है? अब किसी दिन फुर्सत में ये भी मुझको कहना है,
बहुत ग़लत है ये, ये जो कुछ तुमको सुनना नही। समझ कर भी, ये जो कुछ तुमको समझना नही।बहुत ग़लत है ये, ये जो इतना कुछ मुझको कहना है। और ग़लत है ये, ये जो जिद है , कि तुमसे , बस तुमसे ही सब कहना है।
Hopeless. I have chosen this fate for myself, and I am the one to blame. So, I guess I will sit and wait. Whenever you think you are ready, I am right here....
4 comments:
It looks like some part of it I have written, you have put it in words which I am thinking right now. At times I struggle to convey my points after long long discussions and at times just 1 sentence is enough. I have now thought that if I drag a discussion too long then there is less chance that other person understood me correctly. Shall I reach this conclusion...Is it same with you
sorry I took so long to reply, it's just... I am not sure if that would be the right conclusion to draw. I have been thinking about it...
you could have a long discussion with someone who understands you, come to think of it, they are the only people you would even want to have a discussion with. isn't it?
Actually I like talking with people, listening to their problems and then try to help them and I have chosen a profession in which I have to do it daily. So long discussion is not a choice but a profession too...I have noticed that at times when I drag the discussion then I am saying things again and again using different examples, quotes and instances. In doing all that the essence or the point gets blurred a little bit.
I am a little bit confused because I thought that I am a clear and thorough speaker. But some recent incidents made it clear that at sometimes other person is not able to understand me the way I intended.
Your words had captured it exactly the way I was feeling.
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