लकड़ी में घुन सा लगता है
इक सपना मन में पलता है
जीवन दूर बहुत है उस से
पर देखो न वो कब से
दिन रात यूँ मुझको छलता है
इक सपना मन में पलता है
फीके संकल्पों कि क्यों तीखी आशा
विद्रोही मन को भी रोके
ये क्यों बढकर के मर्यादा
जब कोई मुझको गरज़ नहीं दुनिया के सच्चे झूठों से
फिर क्यों इनकी बातों से मन धुक धुक कर के जलता है
लकड़ी में घुन सा लगता है
है तो सारा अम्बर मेरा
तारे मेरे सूरज मेरा
माँगूं तो अब भी शायद
हो धरती और सागर मेरा
पर वो मुझसे रूठ गया जो
पर वो मेरा छूट गया जो
चन्दा मुझको खलता है
इक सपना मन में पलता है
मन का ही ये दीपक मेरे
बुझता है न खुल कर ही क्यों जलता है
लकड़ी में घुन सा लगता है
2 comments:
पर वो मुझसे रूठ गया जो
पर वो मेरा छूट गया जो
चन्दा मुझको खलता है
इक सपना मन में पलता है
बेहतरीन ब्लॉग और वैसी ही सुंदर अभिव्यक्ति. आपके नए ब्लॉग पर टिप्पणी नहीं जा रही थी. संजोग से वही पोस्ट यहाँ भी मिल गई. स्वागत.
शुक्रिया, दरअसल मै तय ही नही कर पा रही थी कि इन दोनों में से कौनसी पंक्ति उचित होगी, तो पहले मिला दिया था दोनों को : पर वो मेरा रूठ गया जो .... छूट शायद उतना सही शब्द नही है, पर फिलहाल तो येही है, तो इसी से काम चला लेतें हैं।
thanks again.
Post a Comment