मैंने ये कविता न जाने कितनी बार अपने कॉलेज के फंक्शन्स और कल्चरल सोसाइटी की मीटिंग्स में सुनायी है। मुझे लगता था की मैं इस कविता को समझती हूँ। पर आज इतना वक्त बीत जाने के बाद कुछ शब्दों के अर्थ एक नए सिरे से समझ आने लगें हैं, औरअब जब याद करतीं हूँ, वो , तब की समझ, तो हैरत होती है - कभी ये; की वो समझ भी कैसी नासमझ थी, और कभी ये, कि कैसे, कैसे समझ सकती थी मैं ये बात, तब तो ऐसा कुछ था ही नहीं ।तो शायद वो समझ उतनी भी नासमझ नही थी.... और तब और भी हैरत होती है।
जीवन की आपाधापी में कब वक़्त मिला
जों किया, कहा, माना
जिस दिन मेरी चेतना जगी
दुनिया के मेले में,
हर एक यहाँ पर एक भुलावे में भूला
कुछ देर रहा हक्का-बक्का, भौचक्का-सा,
आ गया कहाँ,
क्या करूँ यहाँ,
जाऊँ किस जा?
फिर एक तरफ से आया ही तो धक्का- सा
बाहर की रेला ठेली ही कुछ कम थी,
जो भीतर भी भावों का ऊहापोह मचा,
जो किया, उसीi को करने की मजबूरी थी,
जो कहा, वही मन के अंदर से उबल चला,
जीवन की आपाधापी में कब वक़्त मिलाकुछ देर कहीं पर बैठ कभी यह सोच सकूँ,
जों किया , कहा, मानामेला जितना ही भड़कीला
मानस के अन्दर उतनी ही कमज़ोरी थी,
जितना ज़्यादा संचित करने की ख़्वाहिश थी,
उतनी ही छोटी अपने कर की थी,
जितनी ही बिरमे रहने की थी अभिलाषा,
उतना ही रेले तेज ढकेले जाते थे,
क्रय-विक्रय तो ठण्ढे दिल से हो सकता है,
यह तो भागा-भागी की छीना-छोरी थी;
अब मुझसे पूछा जाता है क्या बतलाऊँ
वह कौन रतन अनमोल मिला ऐसा मुझको,
जिस पर अपना मन प्राण निछावर कर आया,
यह थी तकदीरी बात मुझे गुण दोष न दो,
जिसको समझा था सोना, वह मिट्टी निकली,
जिसको समझा था आँसू, वह मोती निकला।
जीवन
की आपाधापी में कब वक़्त मिलाकुछ देर कहीं पर बैठ कभी यह सोच सकूँजो किया,
कहा, माना उसमें क्या बुरा भला।
कहा, माना उसमें क्या बुरा भला।
मैं कितना ही भूलूँ, भटकूँ या भरमाऊँ,है एक कहीं मंज़िल जो मुझे बुलाती है,
कितने ही मेरे पाँव पड़े ऊँचे-नीचे,प्रतिपल वह मेरे पास चली ही आती है,
मुझ पर विधि का अहसान बहुत-सी बातों का।
पर मैं कृतज्ञ उसका इस पर सबसे ज़्यादा
अनवरत समय की चक्की चलती जाती है
,मैं जहाँ खड़ा था कल उस थल पर आज नहीं,
कल इसी जगह पर पाना मुझको मुश्किल है,
ले मापदंड जिसको परिवर्तित कर देतीं केवल छु कर देश-काल की सीमाएं
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