so. here, for the first time i am writing a poem about me. no. not true. i guess they are all about me. but here, unashamedly, openly, totally about me.
मैं बेटी मैं सखी सहेली
मैं पत्नी बहु और अब माँ भी
मैं बहन कभी भाभी किसी की
मैं मौसी चाची और हूँ बुआ भी
मैं नानी बनूँ
मैं दादी बनूँ
मैं पूर्ण विधिवत कन्या दान करुँ
उठते हाथों में है शायद ये दुआ भी
मैं रिश्तों से बंधी सजी
या मैं रिश्तों में दबी फँसी
मैं इनमे घुट भी जाऊं
और इनसे ही पाऊँ मैं गरिमा भी
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4 comments:
सुन्दर कविता है सब महिलाओं की यही कहानी है।
हिन्दी में और भी लिखिये।
kahani to shayad bechare purushon ki bhi yehi hai, par bechare halla nahi karte. nahi? hum rishton me hi to jeeten hain, varna, ek akela insaan apne aap me aur jo kuch bhi ho, vo samaaj nahin ho sakta.
aur, main kavita kewal hindi me hi likhti hoon. angrezi ordhi hui bhasha hai, to isme kavita nahi nikalti.
Oh--so lovely! And so true...
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