कल रात मैं लाइब्रेरी से बाह्रर निकली तो ओक्टोबर की इस हलकी ठंडी हवा से अचानक दिल्ली की कोहरे वाली सर्दी की सुबहो की खुशबु आई। इक गीली सी, सुलगी, बुझती हुई आग की सी । आँखें बंद कर लूँ तो लगता है की वहीं हूँ, उसी समय में, जैसे कभी छोड़ कर आई ही नही। वो सुबह सुबह कॉलेज जाने के लिए घर से निकलती, शॉल ओढे, कन्धों पर बैग संभाले, और इस दुविधा में कि किताब पकड़ने के लिए कौन सा हाथ बाहिर किया जाए? बेचारा बायाँ हाथ, हमेशा मात खा जाता। दायें को जा कर क्लास में नोट्स जो लेने हैं, हेकडी तो देखो ज़रा इनकी। अब प्लीज़आंटीजी टाइप सलाह मत देना की 'दस्ताने पहन लेतीं... ' क्या कहूं मैं, वो उम्र ही कुछ ऐसी थी, अक्ल से दुश्मनी जोकर रखी थी।
खैर, कहाँ थी मैं? हाँ, तो वहां लाइब्रेरी के बाहर खड़े मेरा बहुत मन किया की मैं उड़ कर के दिल्ली पहुँच जाऊं। मुझे वो ज़माना याद आया जब नया-नया ब्याह हुआ रहा हमारा, और हम हियाँ परदेस में आ कर के जम गए। घर बहुत याद आता था मुझको। रातों को सपने आते थे मुझे, की मैं वापिस आ गई हूँ। वो जगहें दिखाई देतीं थीं मुझको।घर, डिपार्टमेन्ट, वो सडी हुई ८८३ बस। वो गलियां, वो पेड़, वो सीढियां, वो एक एक जगह जिसने भूतों से बदतर मेरा पीछा किया। मुझे लोगों की आवाजें सुनाई देतीं थीं । और मैं सपने में कहती थी उनसे, की देखो, आज मैं आ गई हूँ, वरना रोज़ सपनों में मिलती थी। और फिर एक छट्पटाहट से नींद खुलती थी मेरी, दिल को धक्का सा लगताथा, कि वो फिर भी सपना था, वो अब भी सच नही हुआ था।
बहुत लम्बी भूमिका हो गई ना? sorry, अब इतना build- up किया है तो कविता भी सुना ही देतीं हूँ, कुछ ख़ास भी नही है, ऐसे ही कल यादआगई तो लिख रही हूँ।
रात फिर रूह
जिस्म की गिरफ्त से आज़ाद हो गई
साँसों की
वक़्त की
जगह की
हर कफ़स के पार हो गई
एक बार फिर
सात समुन्दर पार
अपने घर के आँगन में खो गई।
अब नौ बरस बीत गए, इनसान जहाँ रहने लगता है उस जगह को अपना घर मान लेता है, आदत पड़ जाती है। अब वापिस जा भी नही सकती, और शायद तुक भी नही है। क्योंकि ये तो एक nostalgia है , जिसे मैं जानती थी वो दिल्ली तो अब है ही नही, न वो लोग हैं, न वो बात। अब ये एक ख्याल है, एक याद है, जिसे सपनों में देखा जा सकता है।महसूस किया जा सकता है। ये कोई पत्थर यां कोई पेड़ नहीं जिसे आप जा कर छू सकतें हैं, और अपनी अह्मकतामें जिसकी तस्वीरें ले सकतें हैं , और अपने मन में सोच सकतें हैं , की बस अब मैंने कैद कर लिया। :) एक उम्र निकल जाती है ये समझने में, की जो कैद हो जाए, वो कैद करने लायक होता ही नहीं ।
अब मुझे वापिस नही जाना। अब मुझे कुछ कैद नही करना। पर ये कविता उस ज़माने की है, जब मुझे वापिस जाना था, ज़ुरूर जाना था। जब एक ज़िद थी। एक बचपना था, एक परेशानी सी थी की मैं कैसे अपना देश छोड़ कर आ गई। क्योंकि ये समझने में भी तो एक उम्र निकल जाती है की जों आपकी यादों में है, बस एक वो ही तो कभी आपसे दूर नहीं। वो ही तो एक चिर है, स्थिर है, अभेध्य-अमृत्य है।
unless of course, you get Alzheimer's and then you lose all the information stored in that little head of yours, gosh that just has to be my worst nightmare. :P
10 comments:
Oh that is just BEAUTIFUL. So eloquently written, the words, as well as the kavita. This line especially rang very very true "एक उम्र निकल जाती है ये समझने में, की जो कैद हो जाए, वो कैद करने लायक होता ही नहीं ।" The whole post brought tears to my eyes...
:D <--- that is a grin, ear to ear wide. thank you ruchika, that's high praise, thank you.
You're welcome (and you're talented!)
__/0\__ <--- covering my face with my hands. blushing.
U know where to hit...............woman!!!
Good post, I have missed a lot of yr writing..going through whenever I get time...We also moved from rajasthan to Punjab, I have spent 18yr in Rajasthan but I never felt like you..may be my parents were with me...I sometimes feel bad but I never ever had a single dream of my birth place and my childhood...haan class ki ladkia bhaut yaad aati hai abhi bhi, sabke naam aur shakle yaad hai:)
Waise Delhi abhi bhi waise he hai kuch badla nahi..I m here from last 5 years..
kabhi aashik sa Intejar karti hai
kabhi mashuka si takraar karti hai
Sard hawao si chubhan hai kabhi
aur kabhi garm thapedo ka sa ehsaas
Waqt sab bhola deyta hai..shayad sab kuch..
hahahahaha, chalo kuch to yaad aata tha.
ye kavita kiski hai? khoobsoorat hai, aapne likhi hai? as to the last pat Waqt sab bhola deyta hai..shayad sab kuch.. jaisa maine post me kaha, that just has to be my worst fear. :) some memories are so precious i would hate to lose them.
I can virtually see grin on your face..it brought smile on my face too..yr words, even casual words carry a lot of energy
Those 4 line I have written, but I m not a poem writer rather I like story telling and that too just for gossip..yes I do write nonsense shayri to amuse my sis
hey! how come I missed that comment? those are beautiful lines, they are very well written. where are your stories? I would like to read them, if you don't mind sharing them that is.
They are not on web right now..but I will surely put them on my blog some day...actually these stories are so close to your real life that you hesitate putting them on public forum...
क्यों अपने को खुद से जुदा करना इतना है मुश्किल
क्यों ढाल लिया है हमने खुद को अलग अलग साँचो में
बेफिक्रा,समझदार, लायक, नालायक और जाने क्या क्या कहते है हम खुद को
क्यों पानी सा नीराकार, निरंग होना इतना है मुश्किल
ढल जाऊ उस अकार मे जिस में समाऊ,हो रंग वो जो है तुम्हारा
rt I have just 2 on my blog
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