Saturday, September 5, 2009

mujhse milo jab tum sapno me

This is a poem from that nineteen ninety eight frame of mind, or ninety nine or something, I cannot remember from when exactly, but whatever... you gotta read it in that frame of mind too...

मुझसे मिलो जब तुम सपनो में
क्यों जागूँ मैं फिर सुबहों में
जब झूठ लगे कोई सच से बेहतर
पाँव चलें कुछ रुक पैरों पर
जले साँस भी भीतर बाहर
लो फिर उलझे धुप का रेशम बालों से और
महके सूरज मुझको छु कर

मुझसे मिलो जब तुम सपनो में
मैं न जागूँ फिर सुबहों में
जन्मो पुरानी आस मेरी है
सोची नहीं मैंने कल परसों में

मुझसे मिलो जब अब सपनो में
रख जाना कोई छाप सुनहरी
अधरों पे वो रात तुम्हारी
साथ रहे जो तब तक मेरे
लंबे होते हों जब साए
दिन के ढले जब सांझ चले और
धूल उडे यूँ कुछ सडको पे

मुझ से मिलो जब
तुम सपनो में...

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