Sunday, February 15, 2009

mujhko tumse baandhe

For Laila.

and a little bit for Tariq too. Or perhaps, a lot of it for him. No, not all of it.


मुझको तुमसे बांधे ये जो इक ज़ंजीर है
धरती से अम्बर को जाते सपनो की तक़रीर है

लिखी
गई मालिक से तो
ख़ुद खींची हांथों पर मैंने
ऐसी भी कोई लकीर है
धरती से अम्बर को जाते सपनो की तक़रीर है


याद करुँ और
आ भी जाएँ
शैतानों कि सी अब् कहाँ तकदीर है

मुझको तुमसे बांधे ये जो इक ज़ंजीर है

यूँ अल्लाह करे वो भला बुरा सब
अब भी क्यों कहता फिरता गलियों में कोई फ़कीर है

मुझको तुमसे बांधे ये जो इक ज़ंजीर है
धरती से अम्बर को जाती
सपनों कि तक़रीर है

No comments: