Sunday, April 12, 2009

pal - 2

This is the second one in the trilogy of Pal। I posted the first one some time back, I have not yet written the third one. The first is a happier poem, I hope so is the third one :) whenever I write it.

कुछ बीत गए, कुछ हैं बाकी
कुछ हँसते थे, कुछ गम के साथी
कितने लम्हे
सब मेरे साथी

इक पल में जीना मुश्किल था
इक पल में धरती अम्बर थी
इक पल मेरे साथ थे तुम
इक पल कैसी वीरानी थी

इक पल नदिया सागर थी
यूँ झूमती गाती आती थी
उसके एक छोर से दूसरे तक, अंतहीन कहानी थी
फिर इक दिन, ख़ुद सागर,
केवल घडों पानी।

इस पल जीवन समझ में आया
उस पल कैसी नादानी थी
भरी दोपहरी सोयी मैं
इक रात जाग कर काटी थी।

उस पल कितने फूल खिले
खुशबू को कितने रंग मिले
उसे जली घास में ढूँढ रही वो
कोई बसंत कि दीवानी थी

इक पल सपना देखा था
इक पल सब जग अपना था
फिर पल में सपना टूट गया
घर भी मुझसे छूट गया और
तू भी मुझसे रूठ गया
तो भी नहीं हैरानी थी।

इस पल जीवन समझ में आया
उस पल कैसी नादानी थी।

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